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आपो॑ देवीः॒ प्रति॑गृभ्णीत॒ भस्मै॒तत् स्यो॒ने कृ॑णुध्वꣳ सुर॒भाऽउ॑ लो॒के। तस्मै॑ नमन्तां॒ जन॑यः सु॒पत्नी॑र्मा॒तेव॑ पु॒त्रं बि॑भृता॒प्स्वे᳖नत् ॥३५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आपः॑। दे॒वीः॒। प्रति॑। गृ॒भ्णी॒त॒। भस्म॑। ए॒तत्। स्यो॒ने। कृ॒णु॒ध्व॒म्। सु॒र॒भौ। ऊँ॒ इत्यूँ॑। लो॒के। तस्मै॑। न॒म॒न्ता॒म्। जन॑यः। सु॒पत्नी॒रिति॑ सु॒ऽपत्नीः॑। मा॒तेवेति॑ मा॒ताऽइ॑व। पु॒त्रम्। बि॒भृ॒त॒। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। ए॒न॒त् ॥३५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:35


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सब मनुष्यों को स्वयंवर विवाह करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् मनुष्यो ! जो (आपः) पवित्र जलों के तुल्य सम्पूर्ण शुभगुण और विद्याओं में व्याप्त बुद्धि (देवीः) सुन्दर रूप और स्वभाववाली कन्या (सुरभौ) ऐश्वर्य्य के प्रकाश से युक्त (लोके) देखने योग्य लोकों में अपने पतियों को प्रसन्न करें, उन को (प्रति गृभ्णीत) स्वीकार करो तथा उन को सुखयुक्त (कृणुध्वम्) करो, जो (एतत्) यह (भस्म) प्रकाशक तेज है (तस्मै) उस के लिये जो (सुपत्नीः) सुन्दर (जनयः) विद्या और अच्छी शिक्षा से प्रसिद्ध हुई स्त्री नमती हैं, उनके प्रति आप लोग भी (नमन्ताम्) नम्र हूजिये (उ) और तुम स्त्री-पुरुष दोनों मिल के (पुत्रम्) पुत्र को (मातेव) माता के तुल्य (अप्सु) प्राणों में (एनत्) इस पुत्र को (बिभृत) धारण करो ॥३५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि परस्पर प्रसन्नता के साथ स्वयंवर विवाह, धर्म के अनुसार पुत्रों को उत्पन्न और उन को विद्वान् करके गृहाश्रम के ऐश्वर्य्य की उन्नति करें ॥३५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सर्वैर्मनुष्यैः स्वयंवरो विवाहः कार्य इत्याह ॥

अन्वय:

(आपः) पवित्रजलानीव सकलशुभगुणव्यापिकाः कन्या (देवीः) दिव्यरूपसुशीलाः (प्रति) (गृभ्णीत) स्वीकुर्वीत (भस्म) प्रदीपकं तेजः (एतत्) (स्योने) सुसुखकारिके (कृणुध्वम्) (सुरभौ) ऐश्वर्यप्रकाशके, अत्र षुर ऐश्वर्य्यदीप्त्योरित्यस्माद् बाहुलकादौणादिकोऽभिच् प्रत्ययः (उ) (लोके) द्रष्टव्ये (तस्मै) (नमन्ताम्) नम्राः सन्तु (जनयः) विद्यासुशिक्षया प्रादुर्भूताः (सुपत्नीः) शोभनाश्च ताः पत्न्यश्च ताः (मातेव) (पुत्रम्) (बिभृत) धरत (अप्सु) प्राणेषु (एनत्) अपत्यम्। [अयं मन्त्रः शत०६.८.२.३ व्याख्यातः] ॥३५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वांसो मनुष्याः ! या आपो देवीः सुरभौ लोके पतीन् सुखिनः कुर्वन्ति, ताः प्रतिगृभ्णीतैताः सुखिनीः कृणुध्वम्। यदेतद् भस्मास्ति, तस्मै याः सुपत्नीर्जनयो नमन्ति, ताः प्रति भवन्तोऽपि नमन्तामुभये मिलित्वा पुत्रं मातेवाप्स्वेनद् बिभृत ॥३५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैः परस्परं प्रसन्नतया स्वयंवरं विवाहं विधाय धर्मेण सन्तानानुत्पाद्यैतान् विदुषः कृत्वा गृहाश्रमैश्वर्य्यमुन्नेयम् ॥३५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी परस्पर प्रसन्नतेने स्वयंवर विवाह करून धर्मानुसार पुत्र उत्पन्न करावेत व त्यांना विद्वान करून गृहस्थाश्रमाचे ऐश्वर्य वाढवावे.